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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

Tatvarth sutra Prashna

1. तत्वार्थसूत्र का अन्य नाम है- मोक्षपाहुड मोक्षशास्त्र R मोक्षमार्गप्रकाशक उपर्युक्त सभी 2. सात तत्वों में से कितने तत्व द्रव्य हैं और कितने पर्याय? 2 और 5 R 5 और 2 3 और 4 4 और 3 3. अवधिज्ञान से जाने गये पदार्थ से कितना सूक्ष्म विषय मनःपर्यय जान लेता है- संख्यातगुणा सूक्ष्म असंख्यातगुणा सूक्ष्म अनन्तगुणा सूक्ष्मR अनियत है

RUJUWALIKA

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Gajmandir prabhuji

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POKARANA POKARNA GOTRA HISTORY पोकरणा गोत्र का इतिहास

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पोकरणा गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज यह घटना बारहवीं शताब्दी की है। दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए अजमेर पधारे। उन्होंने अपने शिष्यों को आसपास के क्षेत्रें में धर्मप्रचार हेतु विहरण करने का आदेश दिया। गुरुदेव के शिष्य देवगणि पुष्कर की ओर विहार में थे। उस समय गांव हरसौर का रहने वाला राठोड सकतसिंह पुष्कर यात्र करने के लिये आया। माहेश्वरी जाति की एक मां अपने चार पुत्रें के साथ वहीं यात्र करने के लिये आई हुई थी। संयोग से जब वह महिला पुष्कर के तालाब में स्नान कर रही थी , तब एक विशालकाय मगरमच्छ ने उस महिला को पकड लिया। वह चिल्लाने लगी। उसी समय राठोड सकतसिंह भी स्नान के लक्ष्य से वहॉं आया हुआ था। वह उसी समय उस महिला को बचाने के लिये तालाब में कूद पडा। उसे भी मगरमच्छ ने पकड लिया। उसी समय मुनि देवगणी का उधर आगमन हुआ। यह दृश्य देखा तो उसी समय उवसग्गहरं स्तोत्र का जाप किया। उवसग्गहरं स्तोत्र की विद्या का विशिष्ट जाप कर वहॉं खडे दो तीन लोगों को तालाब में जाकर उस महिला व राठोड के प्राण बचाने का आदेश दि

AGHARIYA AGHRIYA GOTRA HISTORY आघरिया गोत्र का इतिहास

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आघरिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज आघरिया गोत्र का संबंध भाटी राजपूतों से है। सिंध देश में अग्ररोहा नाम का नगर था। उस नगर पर गोपालसिंह भाटी राजपूत राज्य करता था। वि. सं. 1214 चल रहा था। प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि का स्वर्गवास हो चुका था। उनके पट्ट पर मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरि बिराजमान थे। वे विहार करते हुए अग्ररोहा नगर पधारे। उस समय उस राज्य पर यवन सेना का आक्रमण हुआ था। राजा गोपालसिंह भाटी को उन्होंने कैद कर दिया था। तब राजा के प्रधान घुरसामल अग्रवाल ने बहुत सावधानी से मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि के पास पहुँचा। उनसे निवेदन किया- भगवन्! कैसे भी करके राजा को छुडाना है। गुरुदेव ने कहा- यदि राजा हिंसा का त्याग करे... जैन धर्म स्वीकार करे... नवकार का जाप करे... तो यह चमत्कार संभव है।

GADVANI BHADGATIYA BADGATYA GOTRA HISTORY गडवाणी व भडगतिया गोत्र का इतिहास

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गडवाणी व भडगतिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज अजमेर के पास में भाखरी नामक गॉंव था। वहॉं राठोड क्षत्रिय जिसका नाम गड़वा था , रहता था। सामान्य परिवार था। पारिवारिक कोई समस्या नहीं थी। पर जीवन बडा अशान्त था। धन की कमी थी। उसने बहुत उपाय किये , पर सम्पन्नता उसके पास नहीं आ सकी। आखिर उसके जीवन में पुण्य का उदय हुआ। और प्रथम दादा गुरुदेव विहार करते करते भाखरी में पधारे। योगानुयोग गडवा के मन में गुरुदेव के दर्शन का भाव उत्पन्न हुआ। गुरुदेव के दर्शन कर वह अपने आपको धन्य मानने लगा। गुरुदेव से धर्म का स्वरूप जाना। तो उसके हृदय में जिन धर्म के प्रति उत्कण्ठा बढ़ने लगी। उसे समझ में आने लगा कि सच्चा धर्म क्या है! उसने सारे व्यसनों को अपने जीवन से देशनिकाला दिया। उसने एक बार अवसर पाकर गुरुदेव से अपने जीवन की अशान्ति का वर्णन किया। गुरुदेव ने उसे जाप करने का कहा। गुरुदेव के आशीर्वाद ने उसके जीवन में परिवर्तन कर दिया। वह सम्पन्नता के झूले में झूलने लगा। गुरुदेव का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देख कर वह उनका परम भक्त हो गया। गुरुदेव से उसने व उस

GANG PALAVAT DUDHERIYA GIDIYA MOHIVAL VIRAVAT GOTRA HISTORY गांग, पालावत, दुधेरिया, गिडिया, मोहिवाल, टोडरवाल, वीरावत आदि गोत्रें का इतिहास

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गांग , पालावत , दुधेरिया , गिडिया , मोहिवाल , टोडरवाल , वीरावत आदि गोत्रें का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज मेवाड़ देश के मोहिपुर नामक नगर पर नारायणसिंह परमार का राज्य था। राज्य छोटा था। एक बार चौहानों ने मोहिपुर पर चढ़़ाई कर दी। नगर को चारों ओर से घेर लिया। चौहानों की सेना विशाल थी जबकि मोहिपुर की सेना अल्प! फिर भी बड़ी वीरता के साथ परमारों ने चौहानों के साथ युद्ध किया। युद्ध लम्बे समय तक चला। न चौहान जीतते दीख रहे थे , न परमार हारते! पर बीतते समय के साथ परमारों की सेना अल्प होने लगी। धन का अभाव भी प्रत्यक्ष होने लगा। इस स्थिति ने शसक नारायणसिंह को चिंतित कर दिया। अपने पिता को चिंताग्रस्त देख कर उनके पुत्र गंगासिंह ने कहा- पिताजी! आप चिन्ता न करें। आपको याद होगा। पहले अपने नगर में जैन आचार्य जिनदत्तसूरि का पदार्पण हुआ था। वे तो अभी वर्तमान में नहीं है। परन्तु उनके शिष्य एवं पट्टधर आचार्य जिनचन्द्रसूरि अजमेर के आसपास विचरण कर रहे हैं। उनकी महिमा का वर्णन मैंने सुना है। आप आदेश दें तो मैं उनके पास जाना चाहता हूँ। वे अवश्य ही हमें इस विप

khanted KANTED KHATER ABEDA GOTRA HISTORY खांटेड/कांटेड/खटोड/खटेड/आबेडा गोत्र का इतिहास

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खांटेड/कांटेड/खटोड/खटेड/आबेडा गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इस गोत्र का उद्भव चौहान राजपूतों से हुआ है। प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जिन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य गोत्र-निर्माण और जैन श्रावक निर्माण बनाया था , वे विहार करते हुए एक बार वि. सं. 1201 में मारवाड के खाटू गांव में पधारे। गुरुदेव की अमृतमयी वैराग्यभरी देशना श्रवण करने के लिये समस्त जातियों के भव्य लोग उपस्थित होने लगे। गुरुदेव ने जीवन के लक्ष्य विषय को प्रवचन का आधार बनाया। इस मानव जीवन को सफल करने का एक ही उपाय है- धर्म से जुडना... अपनी आत्मा से जुडना... सर्वविरति स्वीकार करना। सर्व विरति संभव न हो तो देश विरति स्वीकार कर सच्चा श्रावक बनना। गुरुदेव के उपदेशों को श्रवण कर लोगों की मनोवृत्ति परिवर्तित होने लगी। हिंसा का त्याग कर जीवन को करुणामय बनाने का संकल्प ग्रहण करने लगे। चौहान राजपूत श्री बुधसिंह व अडपायतसिंह दोनों भाई थे। वे गरीब थे। धन की कामना थी। गुरुदेव का नाम सुना तो वे प्रतिदिन प्रवचन में आने लगे। उस परिवार की दिनचर्या बदल गई थी। गुरुदेव के प्रभ

CHORDIYA GOLECHA PARAKH RAMPURIYA GOTRA HISTORY चोरडिया/गोलेच्छा/गोलछा/पारख/रामपुरिया/गधैया आदि गोत्रें का इतिहास

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चोरडिया/गोलेच्छा/गोलछा/पारख/रामपुरिया/गधैया आदि गोत्रें का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इन गोत्रें की उत्पत्ति चंदेरी नगर में हुई। विक्रम संवत् 1192 की यह घटना है। पूर्व देश में स्थित चंदेरी नगर पर राठोड वंश के खरहत्थ राजा का शासन था। उसके चार पुत्र थे। उनके नाम क्रमशः अम्बदेव , निम्बदेव , भैंसाशाह और आसपाल थे। एक बार यवन सेना ने राज्य पर आक्रमण कर दिया। जनता को लूंटना प्रारंभ किया। राजा खरहत्थ अपने चारों युवा पुत्रें के साथ सेना लेकर रणभूमि में कूद पडा। यवन सेना का पीछा किया। घमासान युद्ध हुआ। राजा खरहत्थ , उनके पुत्रें व सेना ने बहादुरी के साथ युद्ध लडा। परिणाम स्वरूप ज्योंहि यवन सेना को हारने का अनुमान लगा तो वह सेना लूटा हुआ सारा धन वहीं छोड कर भाग गई। राजा खरहत्थ ने सारा धन उनके मालिकों को लौटा दिया। इस युद्ध में राजा खरहत्थ की विजय हुई। पर उसके चारों पुत्र बहुत घायल हो गये। राजवैद्यों ने चिकित्सा की। प वे स्वस्थ नहीं हो पाये। उनकी स्थिति लगातार बिगडती गई। राज वैद्यों ने अपने हाथ खडे कर दिये। उन्होंने कहा- आपके चारों पुत्रें को

SAMDARIYA SAMADADIYA GOTRA HISTORY समदरिया/समदडिया गोत्र का इतिहास

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समदरिया/समदडिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज पारकर देश स्थित पद्मावती नगर के पास के एक गांव में सोढा राजपूत परिवार रहता था। उसका नाम था समंदसी! उसके आठ पुत्र थे- देवसी , रायसी , खेतसी , धन्नो , तेजमाल , हरि , भोमो तथा करण! पूरा परिवार अत्यन्त गरीबी में जीता था। कृषिकर्म करता था। पर आय की अपेक्षा व्यय अधिक था। वहीं निवास करने वाले साहूकार धन्ना पोरवाल से वह कर्ज लेकर जैसे तैसे अपना काम चलाता था। खेती निष्पन्न होने पर कर्ज चुका दिया करता था। थोडा बहुत जो बचता था , उसी से अपनी तथा अपने परिवार की आजीविका चलाता था। एक बार गांव में विहार करते हुए पधारे आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरि के दर्शन हुए। आचार्य भगवंत की प्रभावशाली मुद्रा देख कर प्रभावित हुआ। अपनी रामकहानी सुनाते हुए निवेदन किया- गुरुदेव! पूरा परिवार दुख में जी रहा है। कर्ज में डूबा हुआ है। गुरुदेव! आप कुछ उपाय फरमावो जिससे हमारी समस्या का समाधान हो। गुरुदेव ने कहा- जीवन में दुख सुख अपने कर्मों के कारण ही प्राप्त होता है। धर्म कार्य करने से सुख व पाप कर्म करने से दुख मिलत

CHOPRA BADER GANDHI SAND GOTRA HISTORY कूकड चौपडा, गणधर चौपडा, चींपड, गांधी, बडेर, सांड आदि गोत्रें का इतिहास

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कूकड चौपडा , गणधर चौपडा , चींपड , गांधी , बडेर , सांड आदि गोत्रें का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज खरतरगच्छ के अधिपति आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरि का शासन विद्यमान था। वे नवांगी टीकाकार आचार्य भगवंत श्री अभयदेवसूरीश्वरजी म-सा- के पट्ट पर बिराजमान थे। वे विहार करते हुए वि. सं. 1156 में मंडोर नामक नगर में पधारे। वहॉं का राजा नाहड राव परिहार था। उसके कोई पुत्र नहीं था। वह अपनी पीडा लेकर आचार्य जिनवल्लभसूरि के श्रीचरणों में पहुँचा। अपनी प्रार्थना विनम्र स्वरों में प्रस्तुत की। आचार्य भगवंत ने कहा- तुम्हारे पुण्य में तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होने की स्थिति है। पर तुम्हें संकल्प लेना हो गा कि मैं एक संतान वीतराग परमात्मा के शासन को समर्पित करूँगा। राजा के संकल्प लेने पर आचार्य भगवंत ने वासचूर्ण डाला। परिणाम स्वरूप उसके चार पुत्र हुए। राजा को अपना वचन याद था। पर रानी नहीं मानी। उसने राजा से कहा- यदि तुमने अपना एक पुत्र जिनशासन को सौंप दिया , तो मैं हमेशा हमेशा के लिये इस देह का त्याग कर दूंगी। स्त्रीहठ के आगे राजा को झुकना पडा।   सबसे बड

RAKHECHA PUGLIYA GOTRA HISTORY राखेचा/पुगलिया गोत्र का इतिहास

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राखेचा/पुगलिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इस गोत्र की स्थापना भाटी क्षत्रियों से हुई है। लौद्रवपुर-जैसलमेर में तब भाटी राजा रावल जेतसी का राज्य चल रहा था। चर्चा वि. सं. 1187 के काल की है। रावल जेतसी का पुत्र कुष्ठ रोग से ग्रस्त था। राजा अपने पुत्र की इस व्याधि से बहुत चिन्तित था। उसने कई स्थानों पर देवी देव मनाये , परन्तु पुत्र स्वस्थ नहीं हुआ। अपनी कुल देवी का ध्यान कर सोया था कि स्वप्न में उसे संकेत मिला कि जैन आचार्य जिनदत्तसूरि के चरणों की सेवा करो , उनकी सेवा से ही तुम्हारा पुत्र स्वस्थ होगा। उस समय दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि सिंध देश में बिराज रहे थे। रावल जेतसी ने खोज कर सिंध देश की यात्र की। गुरुदेव के चरणों में लौद्रवपुर पधारने की विनंती की। उसने अपनी भाषा में निवेदन करते हुए कहा- गुरुदेव आपके दर्श कर , मन में भया उच्छाह। लौद्रव श्री संघ आपके , दर्शन की राखेचाह।।

DADHA SHREEPATI TALERA GOTRA HISTORY ढ़ड्ढ़ा/श्रीपति/तिलेरा गोत्र का इतिहास

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ढ़ड्ढ़ा/श्रीपति/तिलेरा गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इस गोत्र की स्थापना विक्रम की बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुई। खरतरबिरुद धारक आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए पाली जिले के नाणा बेडा गाँव में पधारे। यहाँ सोलंकी क्षत्रिय राजा सिद्धराज जयसिंह के पुत्र गोविन्दचंद निवास करता था। उसके जीवन में हिंसा का बोलबाला था। एक दिन रास्ते में उसे आचार्य श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज के दर्शन हुए। उनके चमकते भाल और संयमी जीवन की आभा से वह आकृष्ट हुआ। उपाश्रय में आने लगा। प्रवचन श्रवण करने लगा। परमात्मा महावीर की वाणी सुनकर वह अत्यन्त प्रभावित हो उठा। उसने सपरिवार आचार्य भगवंत श्री जिनेश्वरसूरि से जैन धर्म ग्रहण किया। आचार्य भगवंत ने उसे श्रीपति गोत्र प्रदान किया।

DOSI DOSHI SONIGRA GOTRA HISTORY डोसी/दोसी/दोषी/सोनीगरा गोत्र का इतिहास

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डोसी/दोसी/दोषी/सोनीगरा गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज डोसी गोत्र के इतिहास का संबंध मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि की जन्मभूमि विक्रमपुर से है। उस समय यह क्षेत्र जैसलमेर में शामिल होने से भाटीपा क्षेत्र कहलाता था। वहाँ क्षत्रिय ठाकुर हीरसेन सोनीगरा का राज्य था। उसके एक पुत्र का दिमाग कर्मवश विक्षिप्त था। योगानुयोग विहार करते हुए महान् शासन शिरोमणि सिद्ध सूरिमंत्र के स्वामी , प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी महाराज अपने विशाल शिष्य मंडल के साथ वि. सं. 1197 में विक्रमपुर में पधारे। चूंकि गुरुदेव का विहार विक्रमपुर में पूर्व में हो चुका था। यही वह क्षेत्र था , जहाँ गुरुदेव महामारी के उपद्रव को शांत किया था! यही वह नगर था , जहाँ महावीर जिनालय की भव्य प्रतिष्ठा उनकी पावन निश्रा में संपन्न हुई थी। यही वह क्षेत्र था , जहाँ उन्होंने एक ही दिन 1200 बारह सौ दीक्षाऐं एक साथ प्रदान करके जिन शासन में एक अनूठे इतिहास की रचना की थी। वहाँ के प्रायः सारे लोग गुरुदेव से पूर्ण परिचित थे। गुरुदेव के आगमन का संवाद ज्योंहि ठाकुर हीरसेन सोनीगरा

BURAD GOTRA HISTORY बोरड/बुरड/बरड गोत्र का इतिहास

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बोरड/बुरड/बरड गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज विक्रम की बारहवीं शताब्दी की यह घटना है। इस घटना का संबंध अम्बागढ के परमार राजा राव बोरड से है। भावुक प्रकृति का वह राजा शिवजी का परम भक्त था। जो भी साधु संन्यासी मिलते , वह सभी से एक ही प्रार्थना करताकि मुझे आप भगवान शिव के प्रत्यक्ष दर्शन करा दीजिये। ताकि मैं उनसे यह जान सकूं कि मेरा मोक्ष कब होगा! इस शर्त को स्वीकार करने वाला कोई संन्यासी बाबा जोगी फकीर उसे नहीं मिला। प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि महाराज वि. सं. 1175 में विहार करते हुए अम्बागढ पधारे। राजा राव बोरड गुरुदेव के दर्शन पाकर बहुत प्रभावित हुआ। उनके तेजस्वी मुख मंडल को देख कर राजा को प्रतीत हुआ कि ये कोई बहुत बडे महापुरुष प्रतीत होते हैं। ये मेरी इच्छा पूरी करेंगे। वह राजा विनय पूर्वक गुरुदेव के चरणों में पहुँचा और उसने गुरुदेव से विनयपूर्वक प्रार्थना की कि वे उसकी मनोकामना पूर्ण करने के लिये भगवान शिव के दर्शन करा देवें। दादा गुरुदेव ने अपने ज्ञान से सब लिया। उन्होंने कहा- हे राजन्! शिवजी के दर्शन करा दूंगा , पर मे

AYRIYA LUNAVAT GOTRA HISTORY आयरिया/लूणावत गोत्र का इतिहास

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आयरिया/लूणावत गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी म-सा- का विचरण सिंध देश में चल रहा था। घटना वि. सं. 1198 की है। वे विहार करते हुए पधारे थे और नगर के बाहर सिंधु नदी के किनारे एक वृक्ष तले विश्राम कर रहे थे। उनके शिष्य शुद्ध आहार पानी गवेषणा के लिये नगर में गये थे। संयोग ऐसा बना कि जब वे मुनि गोचरी के लिये पधार रहे थे , उस समय नगर का शासक अभयसिंह भाटी घोडे पर सवार होकर शिकार के लिये निकला था। अभयसिंह की नजर मुनि पर पड़ी। मुनि को देखकर राजा ने अपना मुँह फेर लिया। मन में आया- इस मुंड ने अपशकुन कर दिया। राजा का इशारा प्राप्त कर राज-सेवकों ने मुनि के प्रति अपशब्दों का प्रयोग किया। मुनि समताधारी थे। योगानुयोग उसी समय उन सेवकों को खून की उल्टियॉं होने लगी।

PAGARIYA MEDATVAL GOLIYA GOTRA HISTORY पगारिया/मेडतवाल/खेतसी/गोलिया गोत्र का इतिहास

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पगारिया/मेडतवाल/खेतसी/गोलिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज खरतरबिरुद धारक आचार्य जिनेश्वरसूरि की पट्ट परम्परा में नवांगी वृत्तिकार आचार्य श्री अभयदेवसूरि म- अपने शिष्य मंडल के साथ विहार कर रहे थे। विहार करते करते वे वि. सं. 1111 में भीनमाल पधारे। भीनमाल में आपके उपदेशों का अनूठा वातावरण बना। सभी जाति के श्रद्धालु लोगों की उपस्थिति आपश्री के प्रवचनों में रहती थी। उपदेशों का अनूठा असर हुआ। ब्राह्मण जाति का एक सनाढ्य परिवार प्रतिदिन उपस्थित होता था। शंकरदास नामक यह व्यक्ति पूज्यश्री के तत्त्वोपदेश से प्रभावित होकर गुरु महाराज का परम भक्त बन गया। नवतत्त्वों का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् उसने गुरुदेव से प्रार्थना की कि मैं परमात्मा महावीर का श्रावक बनना चाहता हूँ। मुझे आप श्रावकत्व की दीक्षा प्रदान करें।

KHINVASARA GOTRA HISTORY खींवसरा/खमेसरा/खीमसरा गोत्र का इतिहास

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खींवसरा/खमेसरा/खीमसरा गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज मरुधर देश के चौहान राजपूतों से इस गोत्र का उद्भव हुआ है। राजपूत खीमजी ने गांव का नाम अपने नाम से से खींवसर करके अपना राज्य चला रहे थे। भाटी राजपूतों के साथ इनकी परम्परागत शत्रुता थी। मौका देख कर एक बार भाटी राजपूतों ने इनके गाय , बैल आदि धन प्रचुर मात्र में चुराकर पलायन कर गये। खीमजी अन्य राजपूतों को साथ लेकर पीछे दौडे। रास्ते में भिडंत हुई। भाटी राजपूत भी बडी संख्या में थे। इस कारण खीमजी का दल कमजोर पड गया। खीमजी चिंता में पड गये। सोचा कि और सैन्य बल एकत्र कर इन्हें युद्ध में परास्त कर लूटा हुआ अपना धन पुनः प्राप्त करेंगे। रास्ते में अपनी शिष्य संपदा के साथ विहार करते हुए आचार्य भगवंत श्री जिनेश्वरसूरि मिले। उनका तेज देख कर वंदन नमस्कार किया। अपनी चिंता से अवगत किया। सारी घटना सुनाई। गुरुदेव! कृपा करो। गुरुदेव ने कहा- तुम हमेशा के लिये शिकार , मद्य , मांस और रात्रि भोजन का त्याग करो। खीमजी आदि सभी ने इन चारों नियमों को स्वीकार किया।

JHABAK ZABAK GOTRA HISTORY झाबक/झांमड/झंबक गोत्र का इतिहास

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झाबक/झांमड/झंबक गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज वि. सं. 1475 की यह घटना है। खरतरगच्छ के महान् प्रतापी श्रुत भण्डार संस्थापक आचार्य भगवंत श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी म-सा- के सदुपदेश का परिणाम इस गोत्र की संरचना है। राठौड वंश के राव चूडाजी चौदह पुत्र-पौत्रें में से एक झंबदे ने झाबुआ नगर बसाया। झंबदे के चार पुत्र थे। राजा झंबदे बूढ़ा हो गया था। उस समय दिल्ली के तत्कालीन बादशाह ने राजा झंबदे को फरमान भेजा कि तुम बहुत ही शक्तिशाली हो... शूरवीर हो...! उधर पास की घाटी में टांटिया नाम का भील हमारी आज्ञा नहीं मानता है और डाके डालता है। गुजरात की जनता को परेशान करता है , यात्रियों को लूटता है। उसे तथा उसके भाई को पकड कर दिल्ली लाना है। यह काम तुमको करना ही है। परिणाम स्वरूप तुम्हारा सादर बहुमान किया जायेगा। राजा झंबदे विचार में पड गया। क्योंकि उसका शरीर वृद्ध अवस्था के कारण जर्जर हो रहा था। उसने अपने पुत्रें के साथ विचार विमर्श किया। सभी जानते थे कि टांटिया भील को पकडना कोई आसान काम नहीं है। बहुत चिंतन करने पर भी उनकी चिंता दूर नहीं हुई। बादशाह

RATANPURA KATARIYA GOTRA HISTORY रतनपुरा कटारिया गोत्र का इतिहास

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रतनपुरा कटारिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इस गोत्र का संबंध रतनपुर नगर से है। रतनपुर नगर वि. सं. 1082 में सोनगरा चौहान रतनसिंह ने बसाया था।   इनकी पांचवीं पीढी में हुए धनपाल एक बार जंगल की ओर जा रहे थे। थकने पर तालाब की पाल पर रूके। पेड की छांव में सो गये। कुछ ही पलों में निद्राधीन हो गये। तभी एक खतरनाक विषधर उधर से गुजरा और सोये हुए धनपाल राजा को डस लिया। जहर शरीर में व्याप्त हो गया। राजा मूर्च्छित हो गये। अद्भुत संयोग था कि उस समय विहार करते हुए प्रथम दादा गुरुदेव खरतरगच्छाचार्य श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी महाराज अपने शिष्यों के साथ उधर पधारे। राजा धनपाल की स्थिति देख कर वे समझ गये कि सर्प ने इन्हें काटा है। गुरुदेवश्री ने कृपा कर विषापहार मंत्र से अभिमंत्रित जल राजा पर छिडका। कुछ ही पलों में जहर का असर दूर हो गया। राजा सचेत होकर बैठा। उसने गुरु महाराज को देख कर वंदनाऐं की। निवेदन किया- गुरुदेव! आज आपने ही मेरा जीवन बचाया है। मैं आपका भक्त बन गया हूँ। आपका उपकार जीवन में कभी भी विस्मृत नहीं कर सकता हूँ। आप कृपा करें और रतनपुर प

NAHTA GOTRA HISTORY नाहटा गोत्र का इतिहास

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नाहटा   गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज नाहटा , बहुफणा गोत्र की मुख्य शाखा है। जीवन और सच्च के 34 पुत्र थे। इनमें सावंत नामका पुत्र श्रेष्ठ वीर था। इनका पुत्र जयपाल पृथ्वीराज की सेना में सेनापति था। उसके नेतृत्व में काबुल के बादशाह की सेना से छह बार युद्ध हुआ। और विजय प्राप्त की। जयपाल के युद्ध के मैदान में पीछे नहीं हटने के कारण पृथ्वीराज ने इन्हें ‘ ना हटा ’ का बिरूद दिया। इस प्रकार बहुफणा गोत्र में नाहटा गोत्र/शाखा का उद्भव हुआ। नाहटा गोत्र में कितने ही विशिष्ट व्यक्तित्वों ने जन्म लिया जिन्होंने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से जिन शासन व राष्ट्र को गौरवान्वित किया। सेठ मोतीशाह का नाम अत्यन्त आदर व सम्मान के साथ लिया जाता है। वे इसी नाहटा गोत्र के वंशज थे। श्री सिद्धाचल महातीर्थ पर बनी सेठ मोतीशा टूंक उनके प्रबल पुरूषार्थ व परमात्म भक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। भायखला का विशाल मंदिर एवं दादावाडी सेठ मोतीशा व उनके पुत्र खीमचंदजी ने ही निर्मित की थी। सेठ मोतीशा स्थान स्थान पर जिन मंदिर एवं दादावाडियों का निर्माण कराया था। चेन्नई म

BAFNA BAPNA GOTRA HISTORY बाफना/नाहटा आदि गोत्रों का इतिहास

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बाफना/नाहटा आदि गोत्रों का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज गोत्रें की वंशावली प्रबंधों में यह वर्णन मिलता है कि बाफना गोत्र उन अठारह गोत्रों में से एक हैं , जिसकी स्थापना आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा की गई थी। इतिहास की कसौटी पर यह वृत्तान्त स्पष्टतः स्वीकृत नहीं है। क्योंकि इन गोत्रें की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 11वीं या 12वीं शताब्दी से पूर्व की होने का कोई भी साक्ष्य/प्रमाण उपलब्ध नहीं है। बाफना गोत्र का इतिवृत्त इतिहास के प्राचीन पन्नों पर इस प्रकार प्राप्त होता है। मालव प्रदेश के धार नगर की माटी से इस गोत्र का संबंध ज्ञात होता है। पंवार वंश के पृथ्वीपाल का राज्य था। उनकी सोलहवीं पीढी में जीवन और सच्च नामक दो राजकुमार हुए। किसी कारणवा उन्होंने धार राज्य का त्याग किया और मारवाड आये। जालोर के राजा से घोर युद्ध हुआ। कन्नोज के राजा जयचंद से इन्हें सहयोग मिला। पर युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला। वर्षों तक युद्ध चलने पर भी जय पराजय नहीं हुई। इस बीच उधर विचरण कर रहे खरतरगच्छ के आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरि का साक्षात्कार हुआ। अपनी नम्र प्रार्थनाऐं

RANKA VANKA SETH SETHIYA रांका/वांका/सेठ/सेठिया/काला/गोरा/दक गोत्र का इतिहास

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रांका/वांका/सेठ/सेठिया/काला/गोरा/दक गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इतिहास के पन्नों पर रांका , सेठिया आदि गोत्रीय जनों के शासन प्रभावक अनूठे कार्य स्वर्ण स्याही से अंकित है। इस गोत्र की रचना का इतिहास विक्रम की बारहवीं शताब्दी का है। गुजरात का वल्लभीपुर नगर वला के नाम से भी प्रसिद्ध था। वहॉं रहते थे दो भाई! गोड राजपूत वंश के थे। नाम थे उनके काकू और पातांक! बहुत गरीब थे। अपनी गरीबी से बहुत तंग आ गये थे। पर कोई उपाय नहीं था। किसी ज्येातिष के जानकार व्यक्ति ने उनका हाथ व ललाट की रेखाऐं देख कर बताया कि इसी वल्लभी में तुम्हारा भाग्योदय होने वाला है। तुम राजमान्य हो जाओगे। बहुत बडे धनवान बन जाओगे। पर बाद में राजा किसी कारणवश तुमसे रूष्ट हो जायेगा। परिणामस्वरूप तुम यवनों की सेना का साथ देकर इस राज्य के ध्वंस में कारण बनोगे। वल्लभी का नाश होने पर मरूभूमि की ओर तुम प्रस्थान करोगे। तुम्हारी पांचवीं पीढी में जो संतान होगी , उससे तुम्हारा कुल विस्तार को प्राप्त करेगा।

BARDIYA GOTRA HISTORY बरडिया गोत्र का इतिहास

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बरडिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज बरडिया गोत्र के इतिहास को जानने के लिये हमें राजा भोज के वर्तमान में प्रवेश करना होगा। धारानगरी पर राजा भोज के शासन के बाद उस राज्य पर तंबरों ने आक्रमण कर मालव देश का राज्य हथिया लिया। भोजराजा के निहंगपाल , तालणपाल , लक्ष्मणपाल आदि 12 पुत्र थे। वे सभी धारा नगरी को छोड कर मथुरा नगर में निवास करने लगे। मथुरा नगर में निवास करने के कारण वे माथुर कहलाने लगे। उस समय वि. सं. 954 में आचार्य श्री नेमिचन्द्रसूरि पधारे। लक्ष्मणपाल ने गुरु भगवंत का उपदेश सुना। बहुत भक्ति करने लगा। एक बार उसने गुरु भगवंत से अपनी दशा का वर्णन करते हुए अपनी पीडा व्यक्त की। आचार्य भगवंत ने फरमाया- धर्म की आराधना करने से ही कार्य सिध् होता है। तुमने धर्म सुना है... समझा है। अब इसे फलित करने का समय आ गया है। तुम सत्य धर्म को स्वीकार करो। आचार्य भगवंत का प्रेरणात्मक उपदेश प्राप्त कर उसने वीतराग परमात्मा का शुध् धर्म- जिन धर्म स्वीकार कर लिया। आचार्य भगवंत ने लाभालाभ का कारण जान कर कहा- तुम्हारे मकान के पीछे के हिस्से में भू